सरस्वती दंडी स्वामी विरजानंद ‘दत्त’ : पुष्प बाली

साहित्य जगत
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” आओ अज्ञानता व अंधकार को दूर करो,हिन्दू समाज में गहरी जड़ें जमाए अंधविश्वासों को खत्म करो। ज्ञान का प्रकाश फैलाओ।यदि तुम ऐसा कर सके तो यहीं मेरी गुरू दक्षिणा होगी।” यह उपदेश स्वामी दयानंद जी को देने वाले मोहयाल समाज के बहुमूल्य रत्न स्वामी विरजानन्द जी थें ।

उन्होंने हिन्दू समाज को स्वामी दयानंद जैसा महान युग प्रर्वतक, विद्वान और मार्गदर्शक शिल्प भेंट किया था।स्वामी दयानंद जी ने अपने गुरु की मनोकामना आर्य समाज की स्थापना करके पुरी की। यह कहना गलत नहीं होगा कि अगर स्वामी विरजानंद जी ने दयानंद जी को अपना शिष्य न बनाया होता तो न दयानंद होते और न ही आर्य समाज होता।
पंजाब पांच दरियाओं की धरती है जिसने कई ऋषि-मुनियों, गुरूओं,पीरों व शूरवीरों को जन्म दिया हैं। इसी धरती पर स्वामी विरजानंद जी का जन्म सन्1778 को गांव गंगापुर करतारपुर, जालंधर में श्री नारायण दत्त जी के घर मोहयाल परिवार में हुआ था।माता पिता ने इन का नाम बृजलाल रखा।केवल पांच वर्ष की आयु में चेचक की बिमारी के कारण इनकी दोनों आखों की रोशनी चली गई। इसी सदमे के कारण कुछ समय बाद इनके माता पिता का देहांत हो गया।तब इनकी आयु केवल बारह वर्ष के करीब थीं।
बृजलाल बचपन से ही तेजस्वी, आत्मगौरव, भावभरित तथा उग्र स्वभाव के थे।13 वर्ष की आयु मे इनके अंधे होने व उग्र स्वभाव के कारण इनके भाई धर्म चंद दत्त व भाभी ने इनको घर से निकाल दिया। अंधा बालक दर दर भटकता हुआ एक संन्यासी के साथ मिल गया व भ्रमण करते करते आ ऋषिकेष आ पंहुचे। यहां गंगा जी में खडे होकर गायत्री मंत्र जपते थे तथा 24 घंटे में अधिक समय गायत्री जप में व्यतीत करते थे।तीन वर्ष तक इन्होंने ऋषिकेष मे ही कठोर तपस्या की। एक रात सोते हुए इन्होंने सुना तुम्हारा जो होना था हो चुका अब तुम यहां से चले जाओ।

यह सुन कर वे जाग गए।इन्होंने शब्दों को देव वाणी समझा और वहां से हरिद्वार आ गए।हरिद्वार में यह बालक स्वामी पूर्णानंद जी से मिला।
स्वामी जी ने बृजलाल को शिष्य बना लिया व इनका नाम विरजानन्द रख दिया।यही से विरजानंद की आध्यात्मिक जीवन यात्रा आरंभ हो गई।वह कुछ देर तक गुरूकुल में रहें व गुरू जी से शिक्षा प्राप्त की। सन् 1799 को आप देश के भ्रामण के लिए निकले व सन् 1823 तक स्थान स्थान का भ्रामण करने के बाद हरिद्वार लौट आए।
आप संस्कृत के प्रकांड विद्वान हो गए थे व आपकी चर्चा सोरों आ गए जहां आप सन् 1832 तक रहे। अलवर के राजा विनय सिंह के अनुरोध पर आप उनके शिक्षक बने व उनको शिक्षा देने हेतु अलवर आ गए। आपने वहां साढे़ तीन वर्ष तक राजा को शिक्षा दी व उसके पश्चात मथुरा आकर एक विद्यालय खोला। यहीं 14 नवम्बर 1860 को आपसे मिलने मूलशंकर नामक युवक आया ।
” स्वामी विरजानंद ने इस युवक की आध्यात्मिक प्रतिभा को पहचान लिया व उसे अपना शिष्य बना लिया। यही मूलशंकर नामक युवक स्वामी दयानंद के रूप में विख्यात हुए। स्वामी विरजानंद जी ने अढा़ई वर्ष तक दयानंद जी को ज्ञान प्रदान किया तथा दयानंद जी से हिन्दू समाज मे व्याप्त बुराईयों और बाहरी आडम्बरों में खोये हिन्दुओं को दिशा देने का वचन ले लिया तथा स्वामी दयानंद को समाज के सामने समर्पित कर दिया।”

ऐसे महान व्यक्तित्व किसी विशेष समुदाय के ही अकेले नहीं होते वह तो समाज के कल्याण हेतु पूरे समाज के मार्गदर्शक होते हैं।कहते है स्वामी जी को अपनी मृत्यु का पूर्व ही ज्ञान हो गया था। प्रति वर्ष दर्शार्थ आने वाले दो भक्तों को कुछ दिन पूर्व कह दिया था कि फिर मत आना। स्वामी विरजानंद जी का निधन 14 सितंबर 1868 को हुआ। स्वामी दयानंद जी अपने गुरू जी के निधन का समाचार जानकर शोक निमग्न हो गए ।

उन्होंने कहा,”ज्ञान का पुंज लुप्त है गया है।”ऐसे महान संत, युग-प्रवर्तक महान गुरू और मोहयाल स्वामी विरजानंद जी पर हमें गर्व है। इनका नश्वर शरीर तो नष्ट हो गया है पर महापुरुषों का जन्म होता है, मृत्यु नहीं।वे अपने कार्यरूप शरीर से सदा जीवित रहते हैं ।कहते है सन्1854 में बाढ़ की चपेट में आने पर इनका गांव पानी में बह गया था।


करतारपुर में श्री विरजानंद गुरूकुल महाविद्यालय सन् 1970 से चल रहा है । जहां गुरु जी की याद में सलाना मेला सितंबर माह में लगता है। श्री सुखदेव राज शास्त्री सन् 1972 से यहां कार्यालय अध्यक्ष के रुप में सेवा कर रहे हैं । गुरूकुल में इस समय 200 विद्यार्थी शिक्षा प्राप्त कर रहे हैं जिन्हें शिक्षा के साथ साथ खाना व रहन- सहन भी मुफ्त मिलता है। समाज को गुरु जी के उपदेशों पर अमल करना चाहिए ।

सरस्वती दंडी स्वामी विरजानंद’दत्त’ जी का परिचय पुष्प बाली द्वारा लिखित पुस्तक ‘मोहयाल रत्न’ से लिया गया है । इस पुस्तक में महान मोहयाल विभूतियों, शख्सियतों, बलिदानियों का परिचय लिखा गया है। आपकी जानकारी के लिए लेखक पेशेवर नहीं वह पंजाब पुलिस में इंस्पेक्टर के पद पर तैनात हैं । वर्ष 2005 में ‘मोहयाल रत्न’ पुस्तक को प्रकाशित करवाया। जिसकी काफी सराहना की गई। मोहयाल मित्रम् में मोहयाल रत्न का हर लेख प्रकाशित किया जाएगा।
अशोक दत्ता..

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