अफसोस है कि मैं गीदड़ नहीं हूँ।

मोहयाल शख्सियत
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धिवक्ता गोपालकृष्ण छिब्बर ने अपने संग्रह से एक पुस्तक मुझे पढ़ने के लिए दी। इसने अनेक वर्ष पहले पढ़ी ऐसी ही एक करुण-कथा का स्मरण कराया। वह स्वाधीनता संघर्ष में काले पानी की सजा पर संभवतः महात्मा गाँधी की लिखी हुई पुस्तक थी, जिसमें बापू ने अंडमान की जेल में अपने ऊपर हुए अंग्रेजों के अकथनीय अत्याचारों का विवरण लिखा था। नहीं.. नहीं..  वह महात्मा गाँधी की लिखी हुई पुस्तक नहीं थी, क्योंकि मेरे ख्याल से वे कभी अंडमान की जेल में नहीं गए थे। जहाँ तक मुझे याद आ रहा है, वह पंडित जवाहरलाल नेहरु की लिखी हुई पुस्तक थी, जिसमें उन्होंने अंडमान की जेल में बिताए अपने समय के हृदय विदारक विवरण लिखे थे। किस तरह उन्हें भूखा रखा जाता था। दिन भर अनाज की पिसाई या तेल की पिराई के कामों में लगाया जाता था। कुछ इसी प्रकार के कष्टों से भरे अनेक यातनादायी वर्षों का रुला देने वाला वृत्तांत पंडितजी ने क्या खूब लिखा था! नहीं.. नहीं..

उत्तम स्वास्थ्य और अल्पायु में ही मेरी स्मृति अज्ञात कारणों से क्यों धुँधला रही है, समझ नहीं पा रहा। वह पुस्तक पंडितजी ने भी नहीं लिखी थी, क्योंकि वे तो पक्का ही काले पानी के रास्ते में नहीं थे। बल्कि मैं तो उनकी जेल का वह कमरा अहमदनगर किले में देखकर भी आया हूँ, जिसमें बड़े आराम से बैठकर उन्होंने इंडिया को डिस्कवर किया था । ड्राइंगरूम जैसे उस कक्ष में टेबल-कुर्सी, लेखन सामग्री सब कुछ सुसज्जित था। अपने कक्ष से निकलकर व बाहर बरामदे में टहल सकते थे। सामने चौक में हवाखोरी कर सकते थे। वह अपने समय का थ्री स्टार अरेंजमेंट ही था। ऐसे विवरण भी हैं कि उस समय जेल में बंद कांग्रेस के ‘बलिदानी’ वीर नेताओं से मिलने के लिए आने वालों को स्टेशन से लाने के लिए जेलर की गाड़ी लगती थी। अंडमान की वह आपबीती वे कैसे लिख सकते थे, जो कभी वहाँ गए ही नहीं!
छिब्बर साहब ने जो पुस्तक मुझे दी है, उसका शीर्षक ही है- ‘आपबीती।’ काले पानी के कारावास की यह कहानी लिखी है भाई परमानंद ने। यह प्रभात प्रकाशन से साल 2002 में छपी 171 पृष्ठ की ऐसी किताब है, जिसे पूरा करके ही आप उठेंगे। भाई परमानंद कौन थे ? वे कांग्रेस की किस इकाई से जुड़े थे ? वे बापू के दाएँ हाथ थे या बाएँ ? वे पंडित के कितने निकट या दूर थे ? वे कांग्रेस के किस अधिवेशन में कौन थे ? वे कांग्रेस के किस अधिवेशन में कौन सा प्रस्ताव पढ़ रहे थे ? वे गरम दल के थे या नरम दल के ? कांग्रेस से उनका लैटर हेड या विजिटिंग कार्ड पर कोई संबंध नहीं था। वे तो एक प्रखर आर्य समाजी थे।  वे करतार सिंह सराबा, भगत सिंह, सुखदेव, राम प्रसाद बिस्मिल जैसे क्रांतिकारियों के प्रेरणा पुरुष थे। उन्हीं के विचारों से प्रभावित होकर लाला हरदयाल जैसे अनेक उत्साही भारतीय अमेरिका और कनाडा से जहाजों में सवार होकर गदर मचाने भारत का रुख कर रहे थे। भाई परमानंद को लाहौर षड़यंत्र केस में गिरफ्तार किया गया और फाँसी की सजा सुनाकर अंडमान के नर्क में भेज दिया गया। एक-दो नहीं, पूरे पाँच साल तक उन्होंने वह नर्क काटा और प्रथम विश्वयुद्ध की समाप्ति के बाद सरकारी नीतियों में परिवर्तन के जस प्रकार विजयी जातियाँ रोमन और अरब अपने विजित प्रदेशों में अपनी भाषा और साहित्य का प्रचार करके विजित जातियों कीजातीयता नष्ट करके उन्हें अपने साथ बाँधना चाहती थीं, ठीक वैसे ही उन्हीं उद्देश्यों के लिए ब्रिटिश सरकार ने भारत में अंग्रेजी भाषा और साहित्य को प्रचलित किया।“
कारण उनका जीवित लौटना संभव हुआ। उनके परिजन आशा का दीया जलाए बैठे थे और कोई नहीं जानता कि उन पर क्या बीती थी ? भाई परमानंद की यह आपबीती उन सब भारतीयों को पढ़ना चाहिए, जो लज्जित करने वाली विशाल जनसंख्या में सवा सौ करोड़ होंगे या 140 करोड़। वे 80 करोड़ भी, जो कोरोना काल में मुफ्त के अनाज का उपहार पाते रहे। अजा, जजा, पिछड़ा वर्ग, अति पिछड़ा वर्ग, दलित, महादलित, अति दलित जैसी आरक्षित श्रेणी के सम्मानित नागरिक जितने भी करोड़ हों, उन्हें भी और मजहब के आधार पर खंडित होकर आजाद हुए भारत की अबाध सुविधा-साधनों पर एकाधिकार रखने-जताने वाले अल्पसंख्यकों के पर्याय 20 करोड़ की वजनदार जनसंख्या वाले मुस्लिमों को भी। अल्पसंख्यकों में अत्यल्प पारसी, जैन, सिख और ईसाइयों को भी यह किताब अवश्य पढ़नी चाहिए। बचे-खुचे सामान्य कहलाने पाकिस्तान के मोमिनों को भी इसके पन्ने पलटने चाहिए, क्योंकि भाई परमानंद उसी लाहौर के थे, जो लाहौर अब भारत का नहीं है! उनके आर्य समाजों के परिसरों में भी मदरसे सजे होंगे या मस्जिदें तनी होंगी !! कहने का कुल विनम्र तात्पर्य यह है कि हमारे समाज के हर वर्ग को ऐसी हर पुस्तक अवश्य पढ़नी चाहिए। चारों तरफ से बंद अंधेरी कोठरी, शौच के लिए कमरे में ही रखा एक गमला, सोने के लिए सीमेंट का एक चबूतरा और ओढ़ने-बिछाने के लिए जुओं से भरा हुआ एक गंदा चीकट कंबल। भोजन के नाम पर सड़ी हुई दाल, भूसा और रेत मिली हुई चने की रोटी और दिन-भर आसपास की कोठरियों में बंद अपराधियों और चोर-उचक्कों की गाली-गलौज और शोरगुल। यह तो अंडमान जाने के पहले भाई परमानंद की लाहौर जिला और सेंट्रल जेल की महीनों लंबी भूमिका है।

एक शुभ चिंतक सिख अफसर ने भाई परमानंद को एक कथ सुनाई, एक बार एक गीदड़ जाल में फँस गया। गीदड़ चालाक होता है। उसने पकड़ने वाले से कहा- यदि तुम मेरी एक बात नहीं सुनोगे तो प्रलय आ जाएगी। उसने कहा, बताओ क्या बात है? तब गीदड़ ने चीखकर कहा, यह उस वक्त बताऊँगा जब तुम मुझे छोड़कर दूर खड़े हो जाओगे। अंत में शिकारी राजी हो गया । गीदड़ थोड़ी दूर गया और आप मरे जग परलो, कहकर भाग गया। अर्थात् जिस किसी तरह हो सके, जान बचा लेनी चाहिए। अफसर ने भाई परमानंद को परामर्श दिया कि आप तो स्वयं बुद्धिमान और विद्वान हैं ।
भाई परमानंद ने उत्तर दिया- अफसोस है कि मैं गीदड़ नहीं हूँ।
भाई परमानंद लाहौर में रहते थे। आठ-दस साल की आयु में यज्ञोपवीत पहना। चकवाल के मिडिल स्कूल में पढ़ते हुए आर्य समाज के विचार पहली बार सुने। वे लिखते हैं कि जब दूसरे विद्यार्थी परीक्षा की तैयारी में अपनी पुस्तकें पढ़ा करते थे तब मैं सत्यार्थ प्रकाश और पंडित लेखराज की पुस्तकें पढ़ता था। लाला हंसराज को पत्र लिखकर उन्होंने आर्य समाज के उपदेशकों को आमंत्रित किया और वहाँ आर्य समाज की स्थापना हुई। वे कलकत्ता और लाहौर में पढ़े। लाहौर के दयानंद कॉलेज में प्रोफेसर बने। भाई परमानन्द के अनुसार ”तीन साल के दौरान पंजाब का ऐसा कोई बड़ा कस्बा न रहा होगा, जहाँ जाकर मैंने भाषण न दिया हो।“ अफ्रीका में बसे भारतीयों के बीच आर्य समाज की ओर से प्रचारक भेजने का प्रस्ताव आया तो लाला हंसराज के कहने पर अफ्रीका में बसे भारतीयों के बीच आर्य समाज की ओर से  प्रचारक भेजने का प्रस्ताव आया तो लाला हंसराज के कहने पर अपना सामान बाँधने वाले भाई परमानंद ही थे और जहाज पर सवार होने के पहले बंबई के आर्य समाज में उनका व्याख्यान हुआ। नैरोबी, डरबन और नेटाल ट्रांसवाल में उनके अनेक व्याख्यान हुए। डरबन में उन्होंने मोहनदास करमचंद गाँधी के दर्शन किए। एक व्याख्यान उन्हीं की अध्यक्षता में दिया। जोहानिसबर्ग में उन्हीं के घर में एक माह रुके और उनके जीवन और तप से प्रभावित हुए। उन्हीं ने श्यामजी कृष्ण वर्मा और दो अंग्रेज मित्रों के नाम पत्र लिखकर दिए और तब भाई परमानंद इंग्लैंड पहुँचे। इंडिया हाऊस में निवास के दौरान ब्रिटिश म्यूजियम की लाइब्रेरी में डेढ़ वर्ष लगातार भारत के इतिहास की सामग्री जुटाई और लंदन विश्वविद्यालय से एमए के लिए एक निबंध लिखकर दिया, जिसका शीर्षक था- भारत में ब्रिटिश राज्य का अभ्युदय। जिस प्रकार विजयी जातियाँ रोमन और अरब अपने विजित प्रदेशों में अपनी भाषा और साहित्य का प्रचार करके विजित जातियों की जातीयता नष्ट करके उन्हें अपने साथ बाँधना चाहती थीं, ठीक वैसे ही उन्हीं उद्देश्यों के लिए ब्रिटिश सरकार ने भारत में अंग्रेजी भाषा और साहित्य को प्रचलित किया।“
कंग कॉलेज का एक प्रोफेसर निबंध देखता रहा। दो एंग्लो इंडियन परीक्षकों ने इस निबंध को स्वीकार नहीं किया। इस अध्ययनकाल का उनका निष्कर्ष ध्यान देने योग्य है, ”अंग्रेजों की शिक्षा प्रणाली हमारी जाति को जातीयता से गिराने के लिए रची गई है। लार्ड विलियम बैंटिक की शिक्षा समिति की युक्तियों को पढ़कर मैं इस निष्कर्ष पर पहुँचा था कि जिस प्रकार विजयी जातियाँ रोमन और अरब अपने विजित प्रदेशों में अपनी भाषा और साहित्य का प्रचार करके विजित जातियों की जातीयता नष्ट करके उन्हें अपने साथ बाँधना चाहती थीं, ठीक वैसे ही उन्हीं उद्देश्यों के लिए ब्रिटिश सरकार ने भारत में अंग्रेजी भाषा और साहित्य को प्रचलित किया।“
लाहौर में रहते हुए अहमदाबाद, बंगलोर, मद्रास, सेलम, राजा मुंदरी, हैदराबाद में आर्य समाज के बीच उनकी सक्रियता हैरत में डालती है। वे बचे हुए समय में बर्मा जाकर धन जुटाते नजर आते हैं। एक मोड़ पर वे फार्मेसी के उद्योग की बारीकियाँ सीखने में खुद को खपाते हैं और बंबई होकर फ्रांस व अमेरिका पहुँचते हैं। लाला हरदयाल से उनकी भेंट होती है। ब्रिटिश गुआना में व्याख्यान के दौरान वे देखते हैं कि पढ़े-लिखे लोग ईसाई बन चुके हैं। शिक्षा व्यवस्था पादरियों के चंगुल में थी और सारे स्कूल चर्चों में लगते थे। भाई परमानंद ने यहाँ एक हिंदू स्कूल खोला और घूम घूमकर एक हजार ड लर चंदा जुटाया। वे लिखते हैं, एक ब्राह्मण ने अपना मकान मुफ्त में दे दिया। यह आदमी कुली के रूप में भरती होकर आया था और अब बहुत धनवान हो गया था। सैन फ्रांसिस्को में शिक्षा के बारे में एक जगह उन्होंने लिखा है कि यहाँ लड़के-लड़कियाँ शुरू में बड़े बुद्धिमान और प्रतिभाशाली होते हैं, परंतु कुछ समय पश्चात् डॉलर कमाने का विचार उनकी प्रतिभा को नष्ट कर देता है!

इस विवरण में भाई परमानन्द के काले पानी के कारावास के अनुभव अभी नहीं आये हैं। यह एक महापुरुष के अपने देश और अपनी परम्पराओं को समृद्ध करने की दिशा में दिये गये महान योगदान की एक सामान्य सी झलक है, जिसमें अण्डमान की कैद में बिताये गये पाँच भयावह वषज़् और जुड़े।
हमने आजादी के अमृतकाल में स्वाधीनता संघषज़् के विस्मृत नायकों को याद किया है। भाई परमानन्द यूँ तो विस्मृत नहीं हैं किन्तु यह दुभाज़्ग्य है कि देश की स्वाधीनता के लिए केवल कांग्रेस को दिया गया श्रेय ऐसे अनेक महान बलिदानियों को हाशिए पर छोड़ गया, जिनका योगदान किसी माई के लाल कांग्रेसी से कम किन्तु यह दुभाज़्ग्य है कि देश की स्वाधीनता के लिए केवल कांग्रेस
को दिया गया श्रेय ऐसे अनेक महान बलिदानियों को हाशिए पर छोड़ गया, जिनका योगदान किसी माई के लाल कांग्रेसी से कम नहीं था। कांग्रेस की राजनीति में महात्मा गान्धी के प्रकटीकरण के हले और बाद के वर्षों तक जो अपने प्राण लगाकर अंग्रेजी सत्ता की नींद हराम किये हुए थे। ऐसा होता है, राजनीति सदा से भाग्य का खेल है। औसत से भी कम योग्यता के अनेक नेताओं को आज भी हम जीवन भर सत्ता में सुखपूर्वक सपरिवार आनन्दमय जीवन बिताते हुए देखते हैं और अनेक योग्य कार्यकर्ता जीवनपर्यन्त उपेक्षा का दंश भोगने के लिए अभिशप्त रहते हैं। अधिकतर श्रेय उनके खाते में दर्ज हो जाते हैं, जो उनका पुरुषार्थ था ही नहीं और जिनके परिश्रम से कुछ परिणाम आये, वे इतिहास के अंधेरे में लुप्त हो जाते हैं। एक बात और। भाई परमानन्द के मार्मिक और प्रेरक अनुभवों की पाण्डुलिपि को पुस्तक रूप में भाई महावीर ने भोपाल में साल 2001 में तब सहेजा, जब वे मध्य प्रदेश के राज्यपाल थे। भाई महावीर उसी महापुरुष के सुपुत्र थे ।
लेखक.. विजय मनोहर तिवारी
प्रेषक..

 

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