दो बूंद जिंदगी की – लघुकथा

साहित्य जगत
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सर्द मौसम और रविवार का दिन,  सभी कामों में थोडी ढ़िलाई देकर आज बहुत दिनों बाद मोनिका ने पास में बने पार्क में जाने का मानस बनाया। एम.एन.सी. में  उच्चाधिकारी होना अर्थात रोज रोलर कोस्टर की  सवारी करने जैसा जीवन । एक खाली कोना देखकर बैंच पर बैठी ही थी कि दूर से पिताजी के दो सेवानिवृत्त मित्र प्राध्यापक रमेश जी और मेजर शर्मा तेज कदमों से उसकी ओर आते दिखे । मोनिका ने सोचा कि अब दोनों पिताजी की देखभाल को लेकर लेक्चर सुनायेंगे।  अब इन बूढों को कौन समझाए, छत, और खाना वक्त पर मिलता है तो समझो किस्मत वाले हो। बाकी  बुढ़ापा मतलब बीमारी तो है ही। समय हमारे पास अपने लिए भी नहीं है तो तुम्हें क्या दें।
मोनिका ने शिष्टाचार वश पैर.छुए और खुद को ताने सुनने के लिए तैयार किया। पर दोनों ने उसे आशिष देते हुए कहा कि ” बिटिया तेरी जैसी बहू पाकर हमारा महेश तो धन्य हो गया। सुबह शाम जब भी घूमने आता उसके हाथों से देसी घी की खुशबू  खुशहाली का पैगाम दे जाती है।इस उम्र में रोटी पर घी मिल जाए तो धन्य हो  जाते हैं बूढ़े। पर आप तो उसे हाथों में  भी लगाने  को  देती है। जीती रहो, खूब तरक्की करो। मोनिका हतप्रभ थी। घर की तरफ दौड़ी।  उसके सामने पिताजी की पुरानी थाली और रूखा खाना आ गया। साथ ही दो बूंद
घी का रहस्य भी मिल गया। कितना मजाक उड़ाते थे सभी।  ऐसा लगता कि पिताजी इसे दो बूंद जिंदगी की समझते हैं।  रूखा सूखा खा लेते हैं पर रोज चिरौरी कर के घी  लेते थे। पिताजी गमगीन , भावहीन चेहरा लेकर तब तक खड़े रहते जबतक दो बूंद घी ले ना लेते । मोनिका  आज शब्दहीन और शर्मिंदा थी । जैसे ही पिताजी शाम को मौसी जी के घर से आए । मोनिका उन से लिपट कर रोने लगी।
मौलिक और स्वरचित है।

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