सनातन धर्म में गुरु और शिष्य की परंपरा आदि काल से चली आ रही है। तभी तो संत कबीर दास कहते हैं —
“गुरु गोविंद दोऊ खड़े, काके लागू पाय।
बलिहारी गुरु आपने, गोविंद दियो बताय॥”
गुरु वह दीपक है जो अज्ञान रूपी अंधकार को मिटाकर, जीवन को ज्ञान और सद्भावना के प्रकाश से आलोकित करता है।
10 जुलाई को आषाढ़ शुक्ल पूर्णिमा हैं , जिसे हम गुरु पूर्णिमा, व्यास पूर्णिमा या वेदव्यास जयंती के रूप में जानते हैं — इस दिन का गुरु-शिष्य संबंधों में विशेष महत्व है।
मान्यता है कि इसी दिन महर्षि वेदव्यास जी का जन्म हुआ था, जिन्होंने वेदों का विभाजन कर चार वेदों का ज्ञान समाज को दिया। उन्हें ही प्रथम गुरु माना जाता है।
गुरु पूर्णिमा पर शिष्य अपने गुरुओं का पूजन कर, कृतज्ञता, श्रद्धा और सम्मान अर्पित करते हैं।
यह परंपरा केवल धार्मिक नहीं, बल्कि सांस्कृतिक और आध्यात्मिक चेतना का भी प्रतीक है।
जिसे आप गुरु मानते हैं — चाहे वह आपके आध्यात्मिक पथप्रदर्शक हों, शिक्षक हों या जीवन मार्गदर्शक — इस दिन हृदय से उनका स्मरण और सम्मान करना सनातन धर्म की परंपरा है।
गुरु ब्रह्मा, गुरु विष्णु, गुरु देवो महेश्वरः
गुरु साक्षात् परब्रह्म, तस्मै श्री गुरवे नमः॥
रवि बख्शी ,संपादक राष्ट्र का मोह एवं पत्रकार सहारनपुर उत्तर प्रदेश