कुर्सियां महान है।
छोटी हैं, बडी हैं, गोल हैं, चपटी हैं, बढती हैं, चलती हैं, हरदम
चलायमान हैं।
दो हत्थे कुर्सी असंख्यों को
नचाती हैं।
ईश कृपा है,दो ही हत्थे हैं, वरना
प्रलय की आंधी आ जाती हैं,
चौपाया हैं पर दो पायों
को चलाता हैं,
कुर्सी के मोह से मानव क्या से क्या हो जाता हैं।।
सतयुग से लेकर कलयुग
की रीत हैं
मोहवंश हो,कुर्सीधारी खो जाता हैं
नये रिश्तों को मनरूप ढलवाता हैं
जी हाँ, चाटूकारी से प्रशंसा
दंभ मोह, लोभ के
पायों को मजबूत
किया जाता हैं।।
मानव इतिहास रचने के
लिए कुछ भी कर जाता है।
धृतराष्ट्र को पुत्र से अधिक
कुर्सी मोह था
दुर्योधन के नाम का तो सिर्फ
व्यामोह था ।।
लेखिका: डा.नीना छिब्बर जोधपुर