क्या आप मोहियाल ब्राह्मणों को जानते हैं? विजय मनोहर तिवारी

साहित्य जगत
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मोहयाल इतिहास में उन्हें मोहयाल रॉबिनहुड लिखा है। वे एक छिब्बर ब्राह्मण परिवार में कश्मीर के राजौरी जिले के मेंधर गाँव में 1670 में जन्में थे। उनका नाम था-लक्ष्मण देव। एक हिरणी के शिकार की घटना ने उन्हें जीवन से विरक्त कर दिया। वे साधु हो गए। घर से निकलकर नासिक गए। नया नाम हुआ माधौ दास। 15 साल नांदेड़ में रहे, जहाँ 1708 में गुरू गोविंद सिंह से मिलने के बाद एक और दिशा परिवर्तन किया। वह औरंगजेब का समय था। मुस्लिम मुगलों के आतंकपूर्ण कब्जों, हमलों और कत्लेआम की कई कहानियाँ थीं। सर्वस्वदानी गुरू गोविंद सिंह ने उन्हें जीवन का एक उद्देश्य दिया। अब वह भजन में लीन एक साधु नहीं, एक योद्धा थे, जिन्हें गुरू ने नया नाम दिया-बंदा वीर बैरागी।

वे मुगलों के खिलाफ गुरुओं के सशस्त्र संघर्ष को तूफान की तेजी में लेकर गए। लाहौर, अंबाला, सहारनपुर, देवबंद, पानीपत, करनाल के इलाके का मानचित्र एक दशक में ही बदलकर रख दिया। सरहिंद में गुरू के दो अबोध किंतु वीर बेटों को जिंदा दीवार में चुनवाने वाले वजीर खान को 1710 में हाथी से कुचलकर मारा। 1716 में फरुखसियर से युद्ध में वे पराजित हुए। तीन सौ सिख कत्ल किए गए। उनके सिर काटे गए। कटे हुए सिरों को भालों पर टाँगा गया और उन्हें एक तमाशे में जंजीरों में जकड़े बंदा बैरागी सहित दिल्ली लाया गया।

ईस्ट इंडिया कंपनी के दो नुमाइंदे जॉन सरमन और एडवर्ड स्टीफेंसन इस खूनी तमाशे के गवाह थे। बंदा के जीवित साथियों में से हर दिन 20 को निर्ममता से कत्ल किया गया। आखिर में 9 जून 1716 को कुतुबमीनार के पास बंदा को मौत की नींद सुलाने के पहले उनके एक अबोध बालक अजय सिंह को अपने हाथों से कत्ल करने का हुक्म हुआ। इंकार करने पर अगला भयानक दृश्य है, जिसमें अजय सिंह को टुकड़ों में काटकर निवाले के रूप में बंदा वीर बैरागी के मुँह में डाला गया। बंदा वीर बैरागी इतिहास में महाराज गुरबख्श सिंह के नाम से भी दर्ज हैं। गुरुदेव रबींद्रनाथ टैगोर ने इस विकट बलिदान पर एक मार्मिक कविता लिखी- “बंदी नायक।’

मोहयालों का महान इतिहास मुगलों के ही समय के एक और वीर बलिदानी तक हमें ले जाता है, जिनका नाम है-भाई मतिदास और भाई सतीदास। वे गुरू तेगबहादुर के शिष्य थे। औरंगजेब के इशारे पर काजी अब्दुल बहाव ने दिल्ली के चांदनी चौक में जब गुरू तेगबहादुर को मौत की सजा सुनाई तब उनसे पहले भाई मतीदास को आरे से चीरकर दो टुकड़ों में काटा गया और भाई दयाला को रुई लपेटकर जीवित जलाया गया।

भाई मतीदास भी एक छिब्बर ब्राह्मण थे। उनके परिवार काे “भाई’ की उपाधि गुरू हर गोविंद ने दी थी। पूरा छिब्बर परिवार पीढ़ियों तक गुरुओं की सेवा में रहा।

क्या आप जानते हैं हुसैनी ब्राह्मण कौन हैं?

फिल्म अभिनेता सुनील दत्त को तो सब जानते हैं। ये “दत्त’ भी मोहियाल ब्राह्मण हैं। इनका अतीत महान छिब्बरों से अलग और एक चमकदार अध्याय है। वे “हुसैनी ब्राह्मण’ भी कहलाते हैं। उनके पूर्वजों का आवागमन भारतीय भूभाग से रेतीले अरब तक था और करबला की लड़ाई में रहब दत्त नाम के एक पूर्वज अपने पूरे परिवार और साथियों के साथ हुसैन के 72 परिजनों की रक्षा मेंे यजीद की बेरहम फौज से टकराए थे। शियाओं के इतिहास में यह घटना कभी भुलाई नहीं गई। आज भी मुहर्रम का मातम उस एक लड़ाई के लिए है, जिसमें हुसैन के परिवार में 32 साल के भाई अब्बास, 22 साल का बेटा अली अकबर, चार साल की सकीना और छह महीने का मासूम अली असगर तक शहीद हुए थे।

यह किताब बताती है कि हुसैन का कटा हुआ सिर लेकर जब यजीद अपनी टुकड़ी के साथ लौट रहा था तब रहब दत्त ने उसका पीछा किया। हुसैन के सम्मानित सिर के लिए यजीद के सामने रहब के सात बेटों के सिर कटे। 1924 में मुंशी प्रेमचंद ने “करबला’ उपन्यास में इस घटना का उल्लेख किया है।

सिंध पर अरबों के हमलों के समय सन् 700 के आसपास कुछ दत्त परिवार सियालकोट आकर बस गए, कुछ राजस्थान के पुष्कर चले आए। ऐसा माना जाता है कि रहब दत्त जब हुसैन का सिर लेकर आए तब उनके पवित्र केश उनके हाथों में टूटकर अा गए थे। उन्होंने उन अवशेषों को सुरक्षित रखा। श्रीनगर के हजरत बल की दरगाह में सुरक्षित वे केश हुसैन के ही हैं। लेखक पीएन बाली ने इस तथ्य की पुष्टि के लिए फारूख अब्दुल्ला सरकार में मंत्री रहे बोधराज बाली से संपर्क किया था, किंतु उन्हें कोई सही उत्तर मिला नहीं।

यह किताब अफगानिस्तान में 830 से 950 ईस्वी तक 120 सालों की एक दत्त राजवंश के बारे में बताती है। सिकंदर से लड़े पोरस और कासिम से भिड़े राजा दाहिर को भी मोहयाल अपने महान वंशजों में गिनते हैं।

सुनील दत्त के अलावा सिनेमा की अनगिनत लोकप्रिय हस्तियाँ मोहयाल समुदाय से हैं। फिल्म मेकर जेपी दत्ता, अभिनेत्री गीता बाली, वैजयंतीमाला बाली और लारा दत्ता, आमिर खान की प्रथम पत्नी रीना दत्ता, शाहरुख खान की श्रीमती गौरी छिब्बर, अरुण बाली, गीतकार आनंद बक्षी, चरित्र अभिनेता ओमप्रकाश (बक्षी ओमप्रकाश छिब्बर), निर्देशक मोहन कुमार जैसे कई सुपरिचित नाम हैं, जिन्हें हम दशकों से देखते-सुनते रहे हैं। नर्गिस दत्त के पिता उत्तमचंद भी मोहयाल ब्राह्मण थे, जो जद्दन बाई के लिए अब्दुल रशीद हो गए थे। एक प्रकार से सुनील दत्त के साथ नर्गिस अपने हिंदू उत्तराधिकार में लौट आई थीं, इसलिए पीएन बाली ने बड़े सम्मान से उनकी समस्त उपलब्धियों सहित अपनी किताब में स्थान दिया है।

मोहयाल हिस्ट्री अपने समुदाय के सभी सात उपनामों की जीवन के विभिन्न क्षेत्रों में स्थापित शिखर हस्तियों का देश भर का ब्यौरा भी सामने रखती है। इस किताब ने मुझे केआर मलकानी की “द सिंध स्टोरी’ की याद दिलाई, जिसमें उन्हाेंने बटवारे से पहले के सिंध और बटवारे के बाद भारत भर में फैले सिंधियों के मूल के बारे में लिखा था। इंदौर के एक सिंधी सम्मेलन में केआर मलकानी साहब का इंटरव्यू करने का अवसर भी मुझे मिला था। ये किताबें हमें अवश्य पढ़नी चाहिए। इतिहास का अर्थ केवल तथाकथित सुलतानों, बादशाहों, नवाबों और निजामों के आतंक और गुंडई के ब्यौरे पढ़ना भर नहीं है। यह हमारा सच्चा सामाजिक इतिहास है। इसमें असली भारत की झलक दिखाई देती है। तैमूर से लेकर मुगलों तक दिल्ली के आसपास उन्हें चुनौती देने वाले जाटों और गुर्जरों के सामाजिक इतिहास पर भी उम्दा किताबें हैं।

भोपाल निवासी मोहयाल समुदाय के वकील गाेपाल कृष्ण छिब्बर मूलत: पाकिस्तानक कब्जे वाले कश्मीर के हैं और उनके संबंधी रावलपिंडी से आगे तक फैले हुए थे। वे बताते हैं कि मोहयाल ब्राह्मण सदियों से मुस्लिम आक्रांताओं के हमलों का सामना करते रहे। इसलिए उनके हाथों से शास्त्र कब छूट गए और केवल शस्त्र इस सीमा तक बचे कि मुस्लिमों से लड़ते-लड़ते वे एक योद्धा जाति ही बन गए। मतीदास और बंदा वीर बैरागी जैसे अनेक शूरवीर मोहयाल हुए हैं, जिन्होंने अन्याय का प्रतिकार किया। इसी लड़ाका स्वभाव ने उन्हें अंग्रेजी हुकूमत से लेकर स्वतंत्र भारत मंे बड़ी संख्या में फौज की सेवाओं की ओर प्रेरित किया। इतिहास के संघर्ष में अनेक नई जातियाँ उभरी और पुराने जाति समूहों के स्वभाव बदले।

भारत का विभाजन मोहियाल ब्राह्मणों के लिए इतिहास की भीषण विभीषिका ही सिद्ध हुआ। रावलपिंडी और लाहौर समेत “इस्लाम के कब्जे वाले और पाकिस्तान नामधारी’ इस भूभाग के चप्पे-चप्पे में मालदार मोहयाल ब्राह्मणों के परिवार अपनी संपन्न खेती और हवेलियों में रह रहे थे। बटवारे की एक कृत्रिम रेखा ने इस पुरुषार्थी समाज पर जैसे वज्रपात किया। 24 सितंबर 1947 को एक ट्रेन के हरेक डिब्बे में भरकर अपना सब कुछ पीछे छोड़कर वे हजारों की संख्या में निकले…

पाकिस्तान के कामाेक रेलवे स्टेशन पर धर्मांध मुस्लिम जिहादियों ने उस ट्रेन को ऐसा शिकार बनाया कि हर डिब्बे में मोहियालों का खून जमकर बहा। हमेशा के हमलों की तरह इस ट्रेन से हमेशा के लिए बेदखल हो रहे निर्दोष और निहत्थे बूढ़ों, गर्भवती महिलाओं और बच्चों तक काे नहीं छोड़ा गया। चार से पाँच हजार मोहियाल केवल इसी ट्रेन में काट डाले गए, जिनमें से कुछ के नाम इस किताब में दर्ज हैं-राय साहेब मेहता, दीनानाथ वैद और राय साहेब बक्षी शिव सहाय छिब्बर…।

लाशों के नीचे जिंदा मिली बच्ची पार्वती का नाम भी है और एक लड़का भी, जिसका नाम नहीं है। बाली ने इस नरसंहार के लिए पिंड ददनखान के एक मुस्लिम नेता गजनफर अली खान को जिम्मेदार ठहराया, जिसने वहशी हत्यारों के झुंड को ट्रेन पर हमला करने के लिए उकसाया था। अपने गाँव, कस्बों और शहरों में जो मोहियाल ट्रेन में आने से पीछे छूट गए होंगे, वे कब और कैसे आ पाए होंगे या जिंदा बच पाए होंगे, इसके कोई विवरण नहीं है। यह घटना लाखों की आबादी वाले दुर्भाग्यशाली मोहियालों की एक छोटी सी संख्या का विवरण मात्र है।

मोहयाल ब्राह्मणों पर केंद्रित यह किताब कुलमिलाकर भारत की दुख भरी कहानी का एक टुकड़ा तो है ही, यह उन बदकिस्मत ब्राह्मणों के महान बलिदानी पूर्वजों का गौरवशाली इतिहास भी है, जिन्हें स्वतंत्र भारत की दूषित राजनीति का एक बड़ा वर्ग सिर्फ कोसने में ही लगा रहा है। बदकिस्मत इसलिए कि वे ओबीसी या दलित नहीं थे। होते तो वोट पिपासु राजनीतिक दल उनके नाम की भी रोटियाँ सेंक रहे होते। आरक्षण की मलाई के साथ उन्हें आवास और लोन की अनगिनत सरकारी योजनाएँ होतीं! उनके स्मारक बन रहे होते!!

वीरता और बुद्धिमानी कभी लाचार नहीं होती। उसे अपने जीवन के लिए उधार के रक्त की आवश्यकता नहीं होती। वे राख से जीवित होने की सामर्थ्य रखते हैं। तप और त्याग उनकी प्रेरणाएँ हैं। वे मोहयाल हैं। वे किसी के मोहताज नहीं हो सकते।

गोपाल कृष्ण छिब्बर द्वारा भेजा गया लेख

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