लेखक: विनोद कुमार दत्ता गद्दीनशीन
कुलगुरु बाबा बीरम शाह जी महाराज का जन्म 21 मार्च 1585 को ऋषि भरद्वाज वंश की एक ब्राह्मण दत्ता परिवार में हुआ था। आपके पिताजी का नाम घेलो दास और दादाजी का नाम बिहारी दास था। बाबा जी का जन्म गांव कंजूरो दत्ता, जिला गुरदासपुर (अब पाकिस्तान) में हुआ।
बाल्यकाल में उन्हें वीरू नाम से पुकारा जाता था। वह अपने माता-पिता की इकलौती संतान थे, पर दुर्भाग्यवश दस (10) वर्ष की उम्र में उन्होंने अपनी माता और बारह (12) वर्ष की आयु में अपने पिता को खो दिया। माता-पिता की असमय मृत्यु से व्यथित होकर बाबा जी ने अपना घर त्याग दिया और सच्चे गुरु की खोज में निकल पड़े। इस दौरान उन्होंने अनेकों संतों से भेंट की और उनसे ज्ञान प्राप्त किया। केवल पंद्रह (15) वर्ष की आयु में ही उन्होंने वेद, उपनिषद और अष्टांग योग में पारंगतता प्राप्त कर ली।
अन्य महान संतों की तरह बाबा जी ने भी अनेक स्थानों की यात्रा की और विभिन्न जगहों पर ध्यान साधना की। भगवान वरुण देव (वर्षा के देवता) की साधना करके उन्होंने वरुण देव से एक गागर (घड़ा) और एक पैसा (सिक्का) प्राप्त किया। इस गागर को सिर पर रखकर उन्होंने जात-पात, रंग-रूप और धर्म से ऊपर उठकर यात्रियों की प्यास बुझाने का पवित्र कार्य आरंभ किया।
झेलम पहुँचने पर, उनके हाथ में एक सितार था। वहाँ उनकी मुलाकात दो सूफी संतों — शाह डोला दर्याई और पीर वाओ से हुई। बाबा जी की निस्वार्थ सेवा को देखकर शाह डोला ने उन्हें वीरू शाह कहकर पुकारा। बाबा जी ने झेलम नदी के तट पर प्रवचन दिए और आध्यात्मिक उत्थान के लिए धार्मिक सभाओं का आयोजन भी किया।
सन् 1609 ई. में बाबा जी झेलम से पुष्कर (हिंदुओं का एक पवित्र तीर्थ स्थल) पहुँचे और वहाँ लंबे समय तक ध्यान किया। अंततः एक पूर्ण गुरु की खोज में वह गुरु हरगोबिंद राय जी (सिक्खों के छठे गुरु) की शरण में पहुँचे। वहाँ भी उन्होंने गुरसिखों की प्यास बुझाने के लिए सिर पर पानी ढोने का कठिन कार्य जारी रखा, जिससे उनके सिर पर एक गहरा घाव हो गया, जो संक्रमित होकर कीड़ों से भर गया।
एक दिन घाव से एक कीड़ा ज़मीन पर गिर गया, जिसे बाबा जी ने तुरन्त उठाकर वापस अपने घाव में रख दिया। गुरु जी के एक सेवक ने यह दृश्य देखा और बाबा जी से इसका कारण पूछा। बाबा जी ने उत्तर दिया:
“यह कीड़ा मेरे घाव से भोजन प्राप्त कर रहा है, इसकी जीवन की आशा इसी घाव पर निर्भर है। मैं इसे भूख से मरते नहीं देख सकता।”
बाबा जी इतने तल्लीन थे अपनी सेवा में कि उन्हें यह भी ध्यान नहीं रहा कि उनके सिर पर रखा गागर दो इंच ऊपर उठ गया था, यानी वह गागर बिना किसी सहारे के हवा में टिका हुआ था। जब गुरु जी को यह चमत्कार ज्ञात हुआ, तो उन्होंने बस मुस्कुराकर देखा, किंतु कुछ कहा नहीं।
फिर कहा जाता है कि 1615 ई., मई के महीने में, एक गर्म दिन पर कुछ सवार अपने घोड़ों समेत गुरु जी के पास आए और पानी की मांग की। गुरु जी ने बाबा जी को आदेश दिया कि वे सवारों और उनके घोड़ों को पानी पिलाएं। बाबा जी एक छोटा सा गागर सिर पर रखकर बाहर आए। सभी लोग हैरान थे कि इतनी भीड़ की प्यास एक छोटे से गागर से कैसे बुझाई जा सकती है?
किन्तु आश्चर्यजनक रूप से जब बाबा जी ने सभी सवारों और उनके घोड़ों की प्यास बुझा दी, तब भी उस गागर में पर्याप्त पानी बचा हुआ था। यह चमत्कार देखकर गुरु हरगोबिंद राय जी ने उन्हें बाबा बीरम शाह की उपाधि दी और कहा:
“तुम एक पूर्ण शिष्य हो, और केवल एक पूर्ण शिष्य ही पूर्ण गुरु बन सकता है।”